बिना पिछड़ों के आंकड़ों का भारत जैसे आधुनिक देश की विकास यात्रा मुमकिन नहीं: ईं निराला

डेस्क

बिना पिछड़ों के आंकड़ों का भारत जैसे आधुनिक देश की विकास यात्रा मुमकिन नहीं: ईं निराला

बिहार/सुपौल: किसी भी सभ्य समाज अथवा जाति वर्ग को अपनी अस्तित्व रक्षा के लिए दोहरे तीहरे संघर्ष की आवश्यकता होती है। यथा सामाजिक संघर्ष, राजनीतिक संघर्ष और आर्थिक संघर्ष। लेकिन इन सबके बाद में बारी आती है सांस्कृतिक संघर्ष की। सर्वप्रथम सामाजिक संघर्ष की बात करें तो उसे हम सामाजिक न्याय के रूप में ही पाते हैं। जिस प्रकार से समाज में प्रत्येक व्यक्ति का सम्मान और गरिमा दोनों पक्षों में रहनी चाहिए। वैसे ही प्रत्येक समाज को भी सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक समानता हासिल होनी चाहिए।

अतः किसी भी जाति या वर्ग का सर्वप्रथम संघर्ष अपने सामाजिक स्थिति का ही होना चाहिए। बहुसंख्यक पिछड़े वर्गों ने संगठित होकर कभी भी अपनी हिस्सेदारी के लिए कोई आंदोलन नहीं किया। यही कारण है कि देश की सबसे बड़ी आबादी होते हुए भी केवल आंकड़ों का जाल मैं उलझा पड़ा हुआ है। इन पिछड़ी जातियों के सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं राजनीतिक जीवन आज भी वास्तव में समाज के निम्न पायदान पर है। इन वर्गों के कितने लोग हैं जो न्यायालय में है कितने विश्वविद्यालयों में, कितने बैंक के टॉप मैनेजमेंट में कितने विभिन्न पब्लिक सेक्टर में भागीदार हैं। विभिन्न ऑटोनॉमस संस्थाओं में कितने लोग हैं। कितने एनजीओ में हैं, प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में कितने भागीदारी है। फौज के कमीशन ड्रिंक में कितने भागीदारी है, निजी क्षेत्र में कितनी भागीदारी है इसी तरह एक ऐसे क्षेत्र हैं जहां यह भागीदारी के मामले में लगभग अछूते हैं। आपका आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक भविष्य गर्व, घमंड, अहंकार पर नहीं बल्कि आप की कितनी भागीदारी है कितनी हिस्सेदारी है इस पर निर्भर करती है यदि आने वाले भविष्य में यह समाज एक होगा तो बचेगा। नहीं तो एक-एक करके सब के सब खत्म हो जाएगा। सारे अधिकार खत्म कर दिए जाएंगे। जो पिछड़े समाज के लोग इस घमंड में जी रहे हैं कि हमारी आबादी ज्यादा है और इसे कोई नही मिटा सकता, अपनी आम जिंदगी में अमल करें।

Sai-new-1024x576
IMG-20211022-WA0002

 

आखिर न्यायालय से ओबीसी कैसे और क्यों मीट गए संविधान जो बाबा साहब अंबेडकर ने अपने बहुत जनों के लिए बनाया, आज उसकी हिफाजत के लिए वहां एक भी बहुजन नहीं बचा। आरक्षण जिसका विवरण संविधान में है जहां पर राज बहुजन समाज का होना चाहिए, आज उन जगहों पर प्राइवेट कंपनियों को बेचा जा चुका है और वहां आज एक भी बहुजन नहीं बचा। खेती के क्षेत्र में जहां 40 साल पहले तक 90% लोग काम करना चाहते थे आज सिर्फ 10% बचे हैं क्योंकि खेती पर निर्भर रहने वाली बड़ी आबादी ओबीसी वर्ग था। देश में बहुत जनों की आबादी 85% है। मगर पिछले कैबिनेट के मंत्रालय में एक भी नहीं न्यायालय में 90% केस बहुजन समाज के हैं, मगर हमारे जज नहीं विश्वविद्यालय में 85% बच्चे बहुजन समाज के हैं, लेकिन दिन भी सी प्रोफेसर लेक्चरर ओबीसी के नहीं है। देश की इकोनॉमी का 85% टैक्स बहुजन समाज भरता है मगर मजा चंद लोग ले रहे हैं।

संविधान कहता है कि आरक्षण प्रतिनिधित्व जनसंख्या के अनुपात में शासन प्रशासन में भागीदारी का है। लेकिन कुछ लोग इसे खैरात कह रहे हैं। हम जानकारी के अभाव में अपने हक हिस्सा को नहीं समझ पा रहे हैं। संविधान कहता है लोकतंत्र में जनसंख्या के हिसाब से प्रतिनिधि लोकतंत्र का प्राण है, इसलिए भारतीय लोकतंत्र में ओबीसी की 52% शासन प्रशासन में भागीदारी होनी चाहिए परंतु आजादी के सात दशक बीत जाने के बाद भी यह संभव नहीं हो सका। संविधान के आर्टिकल 340 में पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था है काका कालेलकर कमीशन भारत में क्यों लागू नहीं हुआ, मंडल कमीशन क्यों इतने वर्षों तक लागू नहीं हुआ और जब मंडल कमीशन लागू हो रहा था तो उसके विरोध में किन लोगों ने राष्ट्रीय लेवल पर विरोध किया।

हमारा दुश्मन वह है जो हमको हजारों सालों से शिक्षा से दूर रखा, हमारा दुश्मन वह है जो हमारे 85% भाइयों को 6743 जातियों में बांट दिया। इसलिए अगर चाहते हो कि मुंह पर लगाम ना लगे तो आप अपनी जिम्मेदारी को समझें और समाज को जगाने और संगठित करने का काम करें। मनुवादी लोग दिन-रात काम कर रहे हैं संविधान को खत्म करने के लिए क्या हम लोग इतने व्यस्त हो गए कि हमारे पास समय नहीं है कम से कम जन जागृति का काम करें।

उक्त बातें राष्ट्रीय युवा महासंघ के अध्यक्ष इंजीनियर एलके निराला ने छातापुर प्रखंड के आनंदपुर गांव में आयोजित जाति जनगणना पर आधारित बैठक में कहा। इंजीनियर निराला ने सभा को संबोधित करते हुए कहा भारत में पहली जनगणना अट्ठारह सौ बहत्तर में हुई और 1881 ई. के बाद से हर 10 साल पर जनगणना हो रही है। भारत में 1931 तक हर जातियों की गिनती होती थी। जनगणना में हर जाति की संख्या और उसकी शैक्षणिक आर्थिक हालत का ब्यौरा होता था। 1941 के जनगणना में भी जाति का कॉलम था लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के कारण इस जनगणना का काम सुचारू रूप से नहीं हो पाया और आंकड़े नहीं आए इसलिए आज भी जाति के किसी भी आंकड़े की जरूरत होती है तो उन्हें शक्ति से जनगणना रिपोर्ट का हवाला दिया जाता है। 1931 की जनगणना के आधार पर ही मंडल कमीशन ने पिछड़ी जातियों की आबादी 52% बताई थी और उसके लिए आरक्षण की सिफारिश की थी। आजादी के बाद तात्कालीन नेहरू सरकार ने फैसला किया था कि जनगणना में जाति की गिनती बंद कर दी जाए तब शायद यह माना गया था कि भारत ने एक आधुनिक शासन प्रणाली अपना ली है।

जहां हर व्यक्ति कानून के नजर में बराबर है और हर वोट की बराबर कीमत है इसलिए जाति का उन्मूलन हो जाएगा। इसलिए उन्हें स्वैका वन में जाति की गिनती नहीं हुई तब से लेकर 2011 तक किसी भी जनगणना में जातियों की समग्र गिनती नहीं हुई। इस समय 2021 के जनगणना की तैयारी चल रही है अगर 2021 में जाति की गिनती नहीं हुई तो इसका अगला मौका 2031 में आएगा तब तक जातियों के आंकड़े 100 साल पुराने हो जाएंगे। इतने पुराने आंकड़ों पर एक आधुनिक देश की विकास यात्रा कैसे मुमकिन होगी।

इंजीनियर निराला ने इतिहास को दोहराते हुए कहा मंडल कमीशन ने तो स्पष्ट रूप से कहा था कि अगली जो भी जनगणना हो उसमें जाति के आंकड़े जुटा लिए जाए, मंडल कमीशन की सिफारिश लागू होने के बाद पहला जनगणना 2001 में प्रस्तावित थी 1997 में तत्कालीन प्रधानमंत्री एच डी देवगौड़ा ने 2001 की जनगणना में जाति को शामिल करने का फैसला कर लिया था लेकिन सरकार गिर गई और उसके बाद अटल बिहारी वाजपेई की सरकार ने जाति जनगणना नहीं करने का फैसला लिया।

2011 में जनगणना में जाति शामिल करने के लिए देश में आंदोलन हो रही थी दिल्ली में इसकी अगुवाई जनहित अभियान कर रहा था ।
2010 के बजट सत्र में लोकसभा में आम सहमति बनी थी कि 2011 में जाति जनगणना को शामिल किया जाए। कांग्रेस, बीजेपी, वामपंथी सहित क्षेत्रीय एवं राष्ट्रीय दल इस बात का समर्थन किया और एक सुर में कहा 2011 में जाति जनगणना को शामिल किया जाए। संसद में बहस के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आश्वासन दिया था लोकसभा की भावना से सरकार वाकिफ है और इस बारे में कैबिनेट फैसला करेगी। घोषणा का जोरदार स्वागत हुआ लेकिन यूपीए सरकार दरअसल जाति जनगणना करना नहीं चाहती थी। उन्होंने इस मामले पर विचार करने के लिए तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता में मंत्रियों की एक समिति का गठन किया। इस समूह में शामिल केंद्रीय मंत्री पी चिदंबरम ने 2011 में जाति जनगणना का विरोध किया और कहा जातियों की गिनती जनगणना में नहीं बल्कि अलग से कराई जाएगी।
2011 की जनगणना में जाति को शामिल न करने के फैसला से तय हो गया कि जातियों के आंकड़े नहीं आएंगे क्योंकि ऐसे आंकड़े जनगणना से ही संभव हो सकते हैं। जनगणना का मकसद भारतीय समाज की विविधता से जुड़े तथ्यों को सामने लाना है ताकि देश को समझने का रास्ता खुल सके। इस आंकड़े का इस्तेमाल नीति निर्माताओं से लेकर समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री तक करते हैं। जनगणना में तमाम जातियों के आंकड़े एवं तथ्य जुटाए जाएं तभी जनगणना का उद्देश्य पूरा होता है साथ ही जनगणना को देश समाज की विविधता पूर्ण सच्चाई और तथ्यों को सामने लाना है तो एससी एसटी ओबीसी के साथ ही सवर्णों की भी गिनती आवश्यक है। क्या अमेरिका ऐसी जनगणना की कल्पना कर सकता है, जिसमें ब्लैक लैटिनो एशियन ओ और नेटिव अमेरिकन तो गिना जाए लेकिन श्वेत लोग नहीं?
क्या दक्षिण अफ्रीका में अश्वेत को छोड़कर बाकी की गिनती की जा सकती है?क्या यह संभव है कि भारतीय जनगणना में किसी धर्मों को छोड़कर जनगणना कर दिया जाए। यदि यह संभव नहीं तो ओबीसी वर्गों की जनगणना क्यों नहीं।

सभा को संबोधित करते हुए राष्ट्रीय युवा महासंघ के मार्गदर्शक दिलीप यादव ने कहा जातिगत आंकड़ों को छुपाने का एकमात्र मकसद राजनैतिक ही हो सकता है। समाचार की हैडलाइन कहती है कि सामाजिक उथल-पुथल को टालने के लिए इस डाटा को छुपाया जा रहा है। ऐसा लगता है आंकड़ा सामने आने से देश में दंगे शुरू हो जाएंगे हम सच से डरते क्यों हैं जब हमें एससी एसटी के आंकड़ों से कोई समस्या नहीं है तो ओबीसी और उच्च वर्ग के संख्या सामने आने से हम क्यों हिचकते रहे हैं। अगर एससी एसटी को जनसंख्या के आधार पर आरक्षण मिलता है तो यही बात ओबीसी पर क्यों लागू नहीं होता। सुप्रीम कोर्ट ने भी कई बार सरकार से ओबीसी की संख्या के बारे में पूछा है लेकिन भारत सरकार टालमटोल करती रहती है। देश के तमाम पिछड़े नेताओं को एक मंच पर आकर पिछड़े समाज को सामाजिक न्याय की लड़ाई में साथ देना होगा। क्योंकि पिछड़ा समाज मूल रूप से महात्मा बुद्ध, अंबेडकर ज्योतिबा फुले, जगदेव कुशवाहा के विचारों और सिद्धांतों को मानने वाला है। इनके नीति और सिद्धांत को मानने वाले सभी राजनीतिक दल संगठन को एक मंच पर आकर इस मुहिम को आगे बढ़ाने की जरूरत है। यदि पिछड़ों की गिनती नहीं तो जनगणना नहीं, किनारों पर काम करने की जरूरत है।

खासकर बिहार सरकार को चाहिए कि यदि उनके प्रस्ताव के आधार पर जनगणना नहीं होती है तो अपने खर्च पर जाति जनगणना कराएं केवल अनुशंसा और राजनीतिक नाटक दिखाने के लिए ना करें। केवल वोट बैंक की राजनीति नहीं करें साथ ही तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन को सामूहिक रूप से बधाई दिया गया। क्योंकि तमिल नाडु पेरियार की धरती है क्रांति की धरती है और एम के स्टालिन ने पिछड़े वर्गों के लिए एक लंबी संघर्ष करके नीट में 27% आरक्षण की लड़ाई को सफल बनाया है। सभा को संबोधित करते हुए युवा महासंघ के संरक्षक श्रवण यादव ने कहा अब ओबीसी वर्ग के लोग किसी के बहकावे में आने वाला नहीं है। इनके हिस्सेदारी और जनगणना की लड़ाई जो लड़ेगा उनके साथ मजबूती के साथ पूरी जमात खड़ी होगी। चाहे सत्ता पक्ष हो या विपक्ष हो सभी को जाति जनगणना पर खुली समर्थन देनी होगी। यह वक्त राजनीति करने का नहीं बल्कि संघर्ष करने का है। सभा को संबोधित करते हुए नंदकिशोर यादव ने कहा वर्तमान परिस्थिति में हम सबों को एकता का परिचय देना है और जब तक जाति जनगणना नहीं हो जाती गांव-गांव में जाकर किसान मजदूरों को अपने भाइयों को अपने हक अधिकार के लिए लड़ने के लिए प्रेरित करना, जागृत करना हमारा कार्य है। देश तो एक वर्ग विशेष के धर्म वादियों से गुलाम है जो धर्म के नाम पर लोगों को मूर्ख बनाए हुए हैं तभी भगत सिंह सोचने लगे देश अंग्रेजों से आजाद होकर भी गुलाम रहेगा क्योंकि इन अछूतों को कौन आजाद कराएगा। तब भगत सिंह ने बाबा साहब के बारे में जाना फिर भगत सिंह ने इस बात को लेकर अध्ययन किया और फिर सोचने लगे उनकी ऐसी हालत कैसे हुई भगत सिंह ने मैं नास्तिक क्यों पुस्तक में लिखा है तो नकली दुश्मन से लड़ रहा था।

असली दुश्मन तो मेरे देश में है जिनसे अकेले बाबा साहब डॉ अंबेडकर लड़ रहे हैं अगर मैं जेल से छूटा तो आज ही 1 बाबा साहब के साथ लड़ लूंगा यह बात कुछ षड्यंत्रकारी लोग को पता चल गया बस दुश्मन ने सोचा कहीं इसकी वाकई सोच विचार धारा अंबेडकर से मिल गए तो बहुत गड़बड़ हो जाएगी। यह बात भगत सिंह शायद ना कहते और ना अपनी जेल डायरी में लिखते तो शायद फांसी ना होती। बहुत सारे महापुरुषों ने हमारे हक और अधिकार के लिए लंबा संघर्ष किया है। आज उन सबों का संघर्ष का परिणाम ही है कि बहुजन समाज के लोग समाज में किसी तरह से जीवन यापन कर रहे हैं। आप कल्पना कीजिए यदि उन लोगों ने छुआछूत के खिलाफ और समानता के खिलाफ, गैर बराबरी के खिलाफ, जाति प्रथा के खिलाफ आवाज नहीं उठाई होती तो हम लोग किस परिवेश में जीवन जीने को मजबूर होते, पुनः वैसा समय हमें देखना ना पड़े इसके लिए हमें अपने इतिहास को याद रखते हुए संघर्ष करने की जरूरत है। मौके पर मनोज राम, सत्यनारायण यादव, प्रेम लाल यादव, रामानंद यादव, राजू यादव, आनंद सरदार, तिलक मेहता, दिलीप यादव, गीता देवी, मीरा देवी, कल्पना, प्रीति, रामानंद मेहता, परमानंद मेहता, मूलचंद मेहता, बेचन मेहता, लालू यादव, सचिंदर यादव, अनमोल यादव, कुंदन यादव, नानू लाल यादव, शंकर यादव, संतोष यादव आदि लोग मौजूद रहे। सभी ने एक साथ संकल्प लिया जाति जनगणना नहीं तो जनगणना नहीं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!